क्यों बिकाऊ है मीडिया,कौन है जिम्मेदार. देखिए खास रिपोर्ट

क्यों बिकाऊ है मीडिया
कौन है इसका जिम्मेदार…?
सच जानना हर कोई चाहता लेकिन सच की कीमत केवल मीडिया ही चुकाता है…


देखिए पूरी रिपोर्ट

देश में प्रेस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है और ये चौथा स्तम्भ रहा भी है क्योंकि आजादी की लड़ाई में देश‌ के क्रांतिकारियों और आजादी के सिपाहियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इस देश के कथित चौथे स्तंभ ने अपना कर्तव्य निभाया। सवाल तब उठता है कि जब वर्तमान परिस्थितियों में प्रेस मीडिया अपनी स्वीकार्यता और विश्वास खोता जा रहा है लेकिन इसके कारणों में कोई जाना नहीं चाहता और न ही इस पर बात ही करता है। क्या किसीने कभी जानना चाहा कि 50 रुपए की लागत वाला अखबार आपके घर रोज सुबह 5 रूपए में कैसे आ जाता है। क्या किसीने कभी सोचा कि आपके रिमोट के बटनों पर आपकी अठखेलियां करती उंगलियों के इशारे पर चलते न्यूज चैनलों पर घटनाओं की लाइव तस्वीरें और देश‌ दुनिया की खबरों के वीडियो आप तक पहुंचाने में कितना पैसा खर्च होता है। आप ये नहीं जानेंगे क्योंकि आपने निरंकुश होते सत्ताधीशों और भ्रष्ट सिस्टम का कुछ न बिगाड़ पाने के चलते मीडिया को आसान मोहरा और टारगेट समझ लिया है क्योंकि मीडिया कभी जनता को पलटकर जवाब नहीं देता और न ही सत्ताधीशों की तरह किसी तरह के वादे करके तोड़ता है इसलिए बड़ी आसानी से आप प्रेस मीडिया को बिकाऊ का तमगा पहना देते हैं।

चौथा स्तम्भ का तमगा… डरे हुए सत्ताधीशों का लॉलीपॉप…..
यहाँ गौर करने वाली बात ये भी है कि आम जनता में प्रेस मीडिया में प्रसारित होने वाली खबरों को लेकर तमाम सारी भ्रांतियां फैली हैं। लेकिन जनता ये नहीं जानती कि चौथा स्तम्भ कहलाने वाला प्रेस मीडिया असल में चौथा या पांचवां कोई सा स्तम्भ नहीं है प्रेस मीडिया को चौथे स्तम्भ का दर्जा देश के चंद बुद्धिजीवी वर्ग और सरकारों के मनमाने कामों पर सवाल खड़े करने वाले लोगों को लॉलीपॉप देने के लिए किया गया।
यहाँ हमने लॉलीपॉप का जिक्र इसलिए किया है कि एक बच्चे को लॉलीपॉप या टॉफी मिलती है तो वह खुश हो जाता है और ठीक यही किया गया है प्रेस मीडिया के साथ भी ठीक यही सुलूक किया गया है।

नाम दरोगा तनख्वाह शून्य…. चौथे स्तम्भ की हकीकत…
प्रेस मीडिया को चौथा स्तम्भ समझने वाली जनता को ये ये जानना चाहिए कि लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों विधायिका न्यायपालिका कार्यपालिका को उनके कामों का पारिश्रमिक मिलता है इन तीनों स्तम्भों के पास असीमित अधिकार हैं। जनता ये भी नहीं जानती कि किसी भी अखबार या चैनल को सरकार से तनख्वाह नहीं मिलती जनता मासूम है वो तो ये भी नहीं जानती कि किसी पत्रकार के मरने पर सरकार उसके परिजनों को आम जनता की तरह ही इमदाद देती है।
किसी तरह की सुरक्षा सुविधा और सरकारी तनख्वाह के बगैर दौड़ते इन कलमकारों का ध्येय केवल एक ही होता है कि किसी भी तरह से लोकतंत्र को मजबूत बनाने जनता के हितों की रक्षा कर सके।
दरअसल ये पत्रकारिता चौथा स्तम्भ कतई नहीं लगता क्योंकि लोकतंत्र के बाकी तीन स्तंम्भों को सरकार का संरक्षण हासिल है। उन्हें अपने जीवन यापन के लिए सरकार से तनख्वाह मिलती है और सेवानिवृत्ति के बाद जीवनभर के लिए पेंशन भी मुहैया होती है। लेकिन पत्रकार या चैनलों अखबारों में काम करने वालों के लिए आजादी के बाद से कुछ भी नहीं किया गया है। और तो और की सरकारें आईं और गईं लेकिन पत्रकारों के हित में मजीठिया आयोग की सिफारिशों को सालों बाद भी अब तक लागू नहीं किया गया इससे सरकारों की मंशा साफ जाहिर होती है।
अपनी जान पर खेलकर देश के लोकतंत्र को मजबूत रखने वाले पत्रकार और सरकार के बीच का ये सच भी आम जनता को नहीं मालूम शायद यही वजह है कि आम जनमानस में मीडिया की छवि बिकाऊ की होती जा रही है।

संकुचित और सीमित अधिकारों के बावजूद लोकतंत्र की रक्षा करता है प्रेस मीडिया…
कहने को लोकतंत्र के चार स्तम्भ हैं विधायिका न्यायपालिका कार्यपालिका और अंत में आता है वो जो अधिकारिक रूप से कहीं भी लिखित में नहीं है। प्रेस और मीडिया जो कई मौकों पर ठीक आम जनता के लिए तो आवाज उठाता ही हो अपितु अपने हकों के लिए भी सरकारों से जूझता नजर आता है। लेकिन आजादी के 78 साल बाद भी आम जनता को यही लगता है कि मीडिया उनके साथ न्याय नहीं कर रहा है। यहाँ एक बात और बताना चाहेंगे कि लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ विधायिका न्यायपालिका और कार्यपालिका को देश की जनता के टैक्स के पैसे से सुविधा सुरक्षा और तनख्वाह मिलती है जो प्रेस मीडिया में काम करने‌ वाले कलमकारों को नहीं दी जाती है। यहाँ ये बात आम जनता जानती है समझती है लेकिन बावजूद इसके अपने टैक्स के पैसों से तनख्वाह पाने वाले तीनों स्तम्भों की बजाय सीधे मीडिया पर आक्षेप लगा देती है क्योंकि उसकी नजर में गॉंवों की कहावत के मुताबिक मीडिया (वो गरीब की लुगाई है जो पूरे गाँव की भौजाई है) न्यायपालिका के खिलाफ कुछ भी बोलने‌ पर पाबंदी है, विधायिका अर्थात नेताजी आपके समाज के हैं रिश्तेदार हैं वे अपना सर्वस्व लुटाकर जनता की सेवा करते हैं। कलेक्टर (लाट) साहब के सामने बोलने की हिम्मत नहीं जुटा नहीं पाते तो उन्हें एक आसान लक्ष्य नजर आता है प्रेस मीडिया को कितनी भी गालियां दे दें वो प्रतिवाद नहीं करता। वैसे भी फर्ज की वेदी में लगातार अपना योगदान देने वाले मीडियाकर्मियों के लिए सरकार के पास भी बहुत ज्यादा नहीं है। यही वजह है कि जानकारी और जागरूकता के अभाव में प्रेस मीडिया आम जनता का निशाना बन जाता है। यहाँ आपको एक सटीक उदाहरण बताना बहुत आवश्यक है आप बाजार में किसी दुकान पर जाते हैं। कोई भी वस्तु खरीदने के‌ लिए आपको उसका मूल्य चुकाना पड़ता है बिना मूल्य चुकाए आपको वह दुकानदार चीज नहीं देता है। यहाँ आपके साथ अन्याय होने पर सीधे मीडिया को दोषी ठहरा देते हैं कि प्रेस मीडिया हमारी आवाज नहीं उठा रहा है। जबकि आपके टैक्स के पैसे से सीधे प्रेस मीडिया को कुछ भी नहीं मिलता है। वहीं जिसे आप मूल्य देते हैं। यानि विधायिका न्यायपालिका और कार्यपालिका उनके खिलाफ आपके मुंह से एक शब्द नहीं निकलता है। हाँ ये जरूर होता है कि प्रेस मीडिया द्वारा आपकी समस्याओं को उजागर करने और छापने के बाद जब उस समस्या का निराकरण होता है तो आप नेताओं और अफसरों की वाहवाही करते हैं उन्हें मसीहा की संज्ञा दे डालते हैं।

प्रेस मीडिया का Thankless Job रखता है लोकतंत्र को जिंदा…
जब अखबारों या चैनलों में जनता की परेशानियों से संबंधित प्रसारित खबर पर सरकार एक्शन लेती है और उनकी परेशानियां खत्म होती हैं तब भी जनता उस अखबार या चैनल के विषय में नहीं सोचती वो धन्यवाद देती है तो सरकार का अफसरों का और अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों का और पत्रकार जिसने मेहनत मशक्कत करके जनता की आवाज जनता के सामने बुलंद की है वो उपेक्षित होकर अपनी दूसरी खबरों में जुट जाता है।
दरअसल समाज का रही रवैया प्रेस मीडिया को बिकाऊ बनाने का सबसे बड़ा कारण है क्योंकि सरकार द्वारा उनके अखबार और चैनलों का खर्च चलता है उनके कर्मचारियों के परिवार चलते हैं।आम जनता तो अपना काम होने के बाद एक धन्यवाद देना भी मुनासिब नहीं समझती। इसके अलावा जमीनी पत्रकार जिन नेताओं मंत्रियों और अधिकारियों के आगे पीछे खबरों के लिए चक्कर लगाते हैं वे भी कभी सरकार के सामने उनकी बात नहीं रख पाए। यहाँ सबसे बड़ा सवाल सरकार पर नहीं देश और समाज से है कि यदि आप निष्पक्ष खबरें चाहते हैं तो आपको अपनी जाति के नेताओं को नहीं अखबार और चैनलों को सपोर्ट करना पड़ेगा। क्या आप जानते हैं कि एक पचास रुपए की लागत वाला अखबार 5 रुपए में आपके घर पहुंचता है तो बाकी 45 रुपए कौन देता है। क्या कभी आपने जानना चाहा कि जो देश दुनिया की खबरें आप टीवी चैनलों पर बड़े मजे से रिमोट बदल बदल‌कर देखते हुए प्रेस मीडिया को बिकाऊ कहते हैं उनन खबरों को आप तक पहुँचाने में कितने संसाधन और मैं पॉवर लगती है। यदि कोई राह चलता आपसे 10 रुपए भी मांग ले तो आप दस बार सोचते हैं। लेकिन मतदान करते समय आप अपनी जाति धर्म को देखकर वोट देते हैं कभी सही ग़लत का चुनाव किया आपने। आप चुनाव में पैसा रुतबा देखकर वोट देते हैं। जब समाज ही बिकाऊ हो तो पत्रकारिता से जुड़े संस्थानों से कैसे उम्मीद रख सकते‌ हैं। इस लेख के माध्यम से हमारा उद्देश्य मात्र यही है कि देश‌ और समाज जब तक पत्रकारों के विषय में नहीं सोचेगा उन्हें सहयोग नहीं करेगा तब तक निष्पक्षता की उम्मीद रखना बेमानी है क्योंकि यहाँ आप भी बिकाऊ हैं इसलिए आपको किसी को भी बिकाऊ कहने का हक नहीं है।

सुनिए क्या कहते हैं देश के प्रमुख और वरिष्ठ पत्रकार
देश‌ प्रदेश के कई नेशनल रीजनल चैनलों में अपनी सेवाएं दे चुके और वर्तमान में राजनीतिक डिबेट में पैनलिस्ट के तौर पर अपना लोहा मनवाने वाले वरिष्ठ पत्रकार और लेखक जयेश कुमार कहते हैं कि आम जनता के लिए मीडिया केवल सीढ़ी मात्र है जनता मीडिया को केवल एक सीढ़ी के तौर पर उपयोग करती है और सत्ता तक अपनी आवाज पहुंचने के बाद जनता मीडिया को भूल‌ जाती है। दरअसल जनता को पता ही नहीं कि मीडिया क्या है उसकी जिम्मेदारी क्या हैं और उसे क्या करना है वर्तमान में कुछ मीडिया हाउस जरूर पत्रकारिता को व्यावसायिक रूप से चला रहे हैं और इसी‌ व्यवसाय को सोशल मीडिया पर बिकाऊ मीडिया कहकर दुष्प्रचारित किया जा रहा है हालांकि पत्रकारिता आज भी जिंदा है।
जयेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार

पत्रकारिता में लम्बा‌ सफर तय कर चुके वरिष्ठ पत्रकार जो आज तक समेत विभिन्न चैनलों और अखबारों का हिस्सा रह चुके राकेश‌ अचल‌ कहते हैं कि मीडिया एक बहुत अच्छा माध्यम है लेकिन ये एक नश्तर की तरह बन गया है कि आप उससे ऑपरेशन भी कर लीजिए और उसीसे किसीकी हत्या भी दीजिए। कुछ वर्षों से जो मीडिया में काम करने वाले लोग हैं वो अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त रहे हैं और इस वजह से समाज का बड़ा अहित हो रहा है। लेकिन वर्तमान में सोशल मीडिया बहुत अच्छा माध्यम है क्योंकि जिस प्रकार सत्ता पक्ष की ओर से बहुत सारे प्रतिबंध अभिव्यक्ति के माध्यमों पर लगाए जा रहे हैं उस लिहाज से सोशल मीडिया होना चाहिए लेकिन उसे अपने विश्वास को बनाए रखने‌ के लिए नए सिरे से मेहनत करनी पड़ेगी। ये प्रतिस्पर्धा इसी सोशल मीडिया पर ही शुरू होगी। अच्छे कहीं आए हों या न आए हों सोशल मीडिया पर बहुत जल्दी आने वाले हैं। जनता के पक्ष लेते हुए वे कहते हैं कि लड़ाई केवल सत्ता पक्ष और एक हम आश्रम प्रतिष्ठान हैं जनता तो बीच में है और हम जनता के रक्षा के लिए आश्रम के लोग हैं पत्रकार हैं मीडिया है। सत्ता है वो जनता के कल्याण की शपथ लेकर तो सरकार में आती है लेकिन हरकतें दूसरी करती है तो ये द्वंद्व सत्तापक्ष और मीडिया के बीच का है।जनता की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी जितनी सत्ताधीशों की है उससे डेढ़ गुना ज्यादा जिम्मेदारी मीडिया पर है।
राकेश अचल वरिष्ठ पत्रकार

देश‌ के प्रमुख अखबार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार वीरेंद्र तिवारी ऐसे लोगों से सीधा सवाल करते हैं, वे कहते हैं कि जो लोग मीडिया को बिकाऊ कहते हैं कि उनसे बोल‌ दीजिए आप कि आप केवल एक महीने 60 -70 रुपए या उसके लागत मूल्य का अखबार खरीदिए, उसकी वेबसाइट के कंटेंट को सब्सक्राइब कीजिए। देखते हैं कितने लोग आते हैं जो ये बीड़ा उठाते हैं। वहीं मीडिया तो अपनी जिम्मेदारी समझता है, और आम जनता के हितों की रक्षा के लिए हमेशा एक वॉच डॉग की भूमिका में रहता है। आपको यदि किसी भी चीज या क्षेत्र में क्वालिटी चाहिए तो उसकी जो एक्चुअल प्राइज है वो आपको पे करनी ही पड़ेगी। यदि आप प्राइस से समझौता करते हैं तो निश्चित तौर पर आपको क्वालिटी से भी समझौता करना पड़ेगा। वे कहते हैं कि मीडिया को चौथा स्तम्भ कहने का कोई भी गजेटेड नोटिफिकेशन नहीं है, ये एक अंडरस्टैंडिंग है कि वॉच डॉग की भूमिका में हम रहते हैं, हम एक स्वयंभू पिलर खुद को बोल सकते हैं। ऐसी कहीं कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है, लेकिन कुछ लोगों ने इसे देखा होगा समझा होगा कि मीडिया की जिम्मेदारी कितनी अहम है तो उन्होंने इसे चौथे स्तम्भ के रूप में परिभाषित कर दिया। बिकाऊ मीडिया के सवाल पर वीरेंद्र तिवारी कहते हैं कि मीडिया को पक्ष और विपक्ष के चक्कर में नहीं पड़ना है उसे अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। हम जो भी सब्सिडाइज्ड कंटेंट दे पा रहे हैं वो सब पूरी ईमानदारी के साथ दें। अपना ईमानदारी से‌ करेंगे तो भविष्य में दूध का दूध और पानी का पानी होता रहेगा।
वीरेंद्र तिवारी (प्रख्यात पत्रकार लेखक एवं स्तंभकार)

देश‌ के प्रखर राष्ट्रवादी स्वदेश समाचार पत्र के पूर्व संपादक दिनेश राव कहते हैं कि मीडिया को बिकाऊ कहने वालों के मन में काफी भ्रम की स्थिति पैदा हो चुकी है। वे अखबार में छपने वाले विज्ञापनों के आधार पर ही अख़बार या चैनलों को बिकाऊ समझ लेते हैं लेकिन वे ये नहीं समझते कि यदि अखबार विज्ञापन नहीं लेंगे तो वही अखबार उनको तीन गुना ज्यादा कीमत पर मिलेगा। सही खबरें देखने और निष्पक्ष समाचार प्राप्त करने के लिए आम जनता को भी विज्ञापन के माध्यम से सहायता करनी होगी।
दिनेश राव पूर्व संपादक दैनिक स्वदेश समाचार पत्र

नवोदित और युवा पत्रकारों के लिए पत्रकारिता का इन्साइक्लोपीडिया जो वर्तमान में एनडीटीवी और एबीपी न्यूज जैसे प्रतिष्ठित ग्रुप में कार्य कर रहे शहर के वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली का कहना है कि पत्रकारिता में खामियां हो सकती हैं। लेकिन ये जरूर है कि जब हम एक ऊंगली किसी की तरफ उठाते हैं तो तीन ऊंगलियां हमारी तरफ आती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मीडियाकर्मी भी समाज से ही आते हैं न हम अलग रहते हैं न अलग पढ़ते हैं, मीडिया समाज का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है, जब समाज का नैतिक पतन होता है समाज में बेईमानी फैलती है समाज में जब दिक्कतें आती हैं समाज का सोच बदलता है तो उसका सोच मीडिया पर भी पड़ता है। लेकिन यही आक्षेप लगाने वाले क्यों न हों अगर इन लोगों पर संकट आता है, कोई मदद की जरूरत पड़ती है, उनके सारे रास्ते बंद हो चुके होते हैं तो वो किसके पास जाते हैं। इतनी सारी बुराइयों के बावजूद मीडिया इकलौता एक सहारा है जिससे लोग मदद की उम्मीद करते हैं।
20 साल पहले आदमी कलेक्टर को फोन करता था थानों में फोन करता था लेकिन आज वो मीडिया को फोन करता है उसे उम्मीद होती है कि मीडिया हमें जस्टिस दिलाने में मदद करेगा।
देव श्रीमाली वरिष्ठ पत्रकार पॉलिटिकल एनालिस्ट, पैनलिस्ट

ग्वालियर के युवा पत्रकारों में बिकाऊ शब्द‌ को लेकर काफी आक्रोश देखा गया। जब हमने यही सवाल जमीनी स्तर पर अपनी पत्रकारिता कर रहे पत्रकार कमल मिश्रा से पूछा तो उनका कहना था कि मीडिया पूरी तरह थैंकलैस जॉब है, हम तमाम चुनौतियों के बावजूद आम जनता की आवाज उठाने का काम करते हैं लेकिन काम हो जाने के बाद जनता केवल नेताओं और अधिकारियों का धन्यवाद करती है। जो मीडिया को बिकाऊ कहते हैं वे ये नहीं जानते कि 35-40 रूपए की लागत वाला अखबार आपके घर पर केवल 5 रूपए में आ जाता है बीच के 30-35 रूपए का अंतर कोई नहीं समझता। 35 रूपए का पेपर लेकर हम नेताओं और अधिकारियों की वाहवाही करते हैं। कमल मिश्रा कहते हैं कि हमने आपके पक्ष की खबर चला दी मीडिया ठीक है और हमने यदि सवाल कर दिया तो मीडिया बिकाऊ हो गया, ये सोचने वाली बात है और लोगों‌ को इस विषय पर गंभीरता से सोचना होगा।
कमल मिश्रा (युवा पत्रकार)

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